एक सफर बचपन का

एक सफर बचपन का

 

एक सफर बचपन का,  गर्मियों की छुट्टियां थी, हम तीनों बहन अपनी नानी के यहां हरिद्वार घूमने गए हुए थे. सारी छुट्टियां हमने खूब मस्ती की और घूमे फिरे. अब जैसे ही हमारी छुट्टिया ख़त्म होने वाली थी, मम्मी पापा हमें लेने आ गए. नानी के यहाँ से चलने के लिए हमने अपना सामान पैक किया और निकल पड़े रेलवे स्टेशन की तरफ. क्योंकि नानी का घर कनखल मे था तो वहां से स्टेशन जाने के लिए ऑटो रिक्शा लेना पड़ता था सो हमने ऑटो रिक्शा लिया. हरिद्वार मे हमेशा ही बहुत भीड़ रहती है, उस दिन भी काफ़ी भीड़ थी स्टेशन पर. खासकर टिकट वाली विंडो पर तो बहुत ही लम्बी लाइन लगी हुई थी.

हमें हरिद्वार से देहरादून आना था, और हमारी ट्रेन भी आ चुकी थी, टिकट वाली विंडो पर महिलाओं की लाइन थोड़ी छोटी थी तो पापा ने हमसे बोला कि तुम्हारी मम्मी लाइन में लग जाएगी और तब तक मैं तुम लोगों को ट्रेन में बिठाता हूँ, और सामान भी साथ में रख देता हूं तब तक तुम्हारी मम्मी टिकट भी ले लेगी और मैं और तुम्हारी मम्मी बस 2 मिनट में टिकट लेकर आते हैं.

Oh ye kiyaa huaa

अब जैसे ही पापा मम्मी के पास लाइन में पहुंचे, तो हमारी ट्रेन भी चल पड़ी. अब हम तीनों बहनों की हालत खराब, क्यों की थे तो हम छोटे ही. करते तो क्या करते? मेरी मेरी बड़ी और मेरी छोटी बहन दोनों ही बोली कि हमको ट्रेन से उतर जाना चाहिए, पर मैं बड़ी ही बहादुर थी मैंने दोनों को बोला कि शायद पापा मम्मी ट्रेन के पीछे वाले डिब्बे में चढ़ गए होंगे, तो हम भी नहीं उतरे और आराम से बिना टिकट के बैठे रहे. अब मैं यह सोच रही थी की अगले स्टेशन मोतीचूर में मम्मी पापा दोनों ही हमारे डिब्बे में चढ़ जाएंगे. पर ऐसा हुआ नहीं. अब तो मुझे भी डर लग रहा था, कि कहीं टीटी आकर हम को बिना टिकट के सफर करते पकड़ ना ले.

Age

उस वक्त मेरी उम्र लगभग 15 वर्ष होगी, मेरी बड़ी बहन मुझ से 1 साल बड़ी थी, मेरी छोटी बहन 10 साल की थी. अब इस उम्र के बच्चों को ट्रेन में अकेला सफर करते देखकर कोई भी गलत ही सोचता. हमारे आसपास भी कई यात्री बैठे थे. पास बैठे हुए एक अंकल जी ने पूछ ही लिया, बेटा आप लोग अकेले कहां जा रहे हो, मैंने भी तुरंत जवाब दिया- तो क्या हुआ अंकल जी, इसमें कौन सा दिक्कत है. हमारे मामा जी ने हमें ट्रेन में बैठा दिया था और हमारे पापा जी हमें लेने आ जाएंगे स्टेशन पर ( मैंने उनसे झूठ इसलिए बोला था ताकि किसी को यह ना पता चले कि हम अपने पापा मम्मी से बिछड़ गए हैं और कोई इस बात का गलत फायदा ना उठाएं)

इस तरह डरते डरते सफर करते करते, हम सारे स्टेशन क्रॉस करते रहे. और अंत में अपने स्टेशन डोईवाला पहुंच ही गए वह भी बिना टिकट के. अब हम स्टेशन पर उतर कर वहीं बैठ गए. वहां के स्टेशन मास्टर ने जब हमको वही देर तक बैठे हुए देखा, तो हमको आकर पूछने लगे, कि तुम तीनों हरिद्वार से आए हो ना. मैंने भी पूछा जी अंकल पर आपको कैसे पता? उन्होंने कहा, हमारे पास हरिद्वार से इंफॉर्मेशन आई थी आपके बारे में.
कि आपके पापा मम्मी हरिद्वार स्टेशन पर छूट गए थे और आप जिस भी स्टेशन पर उतरो तो आप का ध्यान रखा जाए.
इतने में ही हम क्या देखते हैं कि मम्मी पापा चले आ रहे हैं और मम्मी की आंखों से आंसू बह रहे थे. वहां पहुंचते ही पापा मम्मी ने हम को गले लगा लिया.

एक सफर बचपन का

अब हम सब ने यह तय कर लिया था कि जब भी हम कोई सफर करेंगे तो पहले से प्लानिंग करके ही करेंगे ताकि फिर से ऐसी कोई घटना ना घटे और आज यह सीख अपने बच्चों को भी देती हूं.

दोस्तों यह मेरे बचपन की एक सच्ची घटना है, जिसे आप सब लोगों के साथ शेयर कर रही हूं. बताइएगा जरूर आप सबको कैसी लगी मेरी यह कहानी.
धन्यवाद.

3 thoughts on “एक सफर बचपन का”

  1. We spent a lot of time at her home. Maybe so her mother could keep an eye on us. Mrs. Spencer made sure to be around, offering drinks, snacks, chit chat. I noticed that she was fairly young herself. Granted at my age, anyone over 25 was old, but she was probably mid-30s, divorced. If she was a indiction of how Carley would develop, maybe I should wait. Mrs. Spencer had fuller breasts and a nice butt. She appeared to be in great shape for her “advanced” age. I knew she was keeping an eye on me as much as I was on her and her younger daughter. Her eldest, Sharon was away at college at the time. With Mrs. Spencer around we mostly limited ourselves to holding hands and sneaking in a few light kisses. One day Mrs. Spencer caught us by surprise walking in as I’d slid my hand up from Carley’s stomach to rub her right breast through her shirt. She didn’t really need a bra yet, so I could feel her nipple, hard, through her shirt. Just this much contact had me hard also.

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